पत्रकारिता जैसै संजीदा विषय में मेरी
दिलचस्बी कैसे बढ़ी, ये तो मैं भी नहीं जानता. लेकिन प्रक्रिति का नियम है कि
परिवर्तन धीरे धीरे होता ही है. शायद ये नियम मेरे विचारों पर भी लागू होता है.
दरअसल में दूरदर्शन देखते हुए बड़ा हुआ हूँ. मंदिरा का वो शाँति वाला किरदार मुझे
आज भी याद है जब हर घर में मंदिरा को शाँति के नाम से ही जाना जाने लगा था. लेकिन
आज के वक्त में दूरदर्शन के लिये किसी के पास समय ही नहीं है. TV चैनलों की तो जैसे
बाढ़ सी आ गयी है. शायद इसीलिये, जब पहली बार TV चैनलों का ये बाजार
मेरे सामने आया तो विचारों में परिवर्तन आना तो लाजमी था. दूरदर्शन के आधे घंटे के
समाचारों की जगह अगर समाचारों का एक अलग चैनल ही मिल जाए तो दिलचस्बी तो बढ़ेगी
ही. बस इन्हीं News Channels ने
मुझे बिगाड़ दिया, घर और स्कूल तक सीमित रहने वाले शक्स को देश विदेश का हाल जानने
का मौका जो मिल गया था. लेकिन मीडिया के इस स्वरूप ने देश के एक अलग चेहरे से भी
मुझे रूबरू करवाया. किताबों की जगह अब देश के हालात मुझे परेशान करने लगे.
“हे भगवान, कहीं में Depression का
शिकार तो नहीं हो गया, जब देश को चलाने वाले ही देश को लेकर निश्चिंत हैं तो फिर
मैं क्यों महात्मा गाँधी बन रहा हूँ. एक मेरे परेशान होने से ये देश गंभीर नहीं
होने वाला.” इसी सोच के साथ मैने अपने विचारों को दबाने की
नाकाम कोशिश शुरू कर दी. और ये कोशिश आज तक चल रही है. देश के हालात इतने बुरे भी
नहीं है पर जितने भी है वो क्यों है
? इस सवाल के जवाब की एक ललक सी जाग उठी
है जहन में.
खैर,
ये ललक अगर हर इन्सान के अन्दर जाग जाए तो कुछ अच्छा होने की संभावनाएँ बढ़ सकती
है. और इसके लिए पत्रकारिता को एक माध्यम की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है, कयोकि
जनता सोचेगी तो तब न, जब उसे कुछ पता होगा. और मीडिया का काम लोगों को सच से रुबरु
करवाना ही तो है. खैर दिलचस्बी ही सही, मीडिया की इस भूमिका में मैं भी भागीदार
बनना चाहता हूँ.
छोटा ही सही, पर प्रयास तो कर ही रहा
हूँ.
और ये प्रयास भी तो देशहित के लिए ही
है....
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