नोटों की हरियाली होती ही कुछ ऐसी है....आंखों पर जब इसकी चमक भारी पड़ जाए तो पूरा युग चौंधिया जाता है और सियासत हर बार की तरह सही वक्त का इंतजार करती है...सही वक्त आता है...लेकिन वो सही सिर्फ सियासत के लिए होता है...बाकि आवाम के लिए तो तब तक एक युग का अंत हो जाता है...अब नारे लगाओ, मोमबत्तियां जलाओ या फिर विधान महफिलों में सियासत का नाच दिखाओ...लेकन पिता का दर्द कम नहीं होगा...मां की उम्मीद फिर नहीं लौटेगी...हां...
भूखी सियासत को एक कंकाल जरूर मिल गया है...अब इस कंकाल से आवाम को डराने का काम करे या फिर अपनी भूख मिटाने का इंतजाम करे...अंजाम हम भी जानते हैं...अंजाम आप भी जानते हैं...लेकिन युग देख रहा होगा...निगम की उस रक्तरंजित प्यास में...जिसका पानी आवाम की प्यास तो बुझाता रहा...लेकिन युग की युगांतर बढ़ने वाली प्यास को नहीं बुझा पाया...अब देर हो गई है...लेकिन युग, औऱ भी बहुत हैं...और सियासत तो खैर है ही...ये कल भी नाच रही थी, आज भी नाच रही है...और कल भी नाच ही रही होगी...दुआ कीजिए...किसी और युग का ये अंजाम न हो...वरना इंसानियत का युग कब खत्म हो जाएगा...न हमें पता चलेगा...न आपको...हां...युग के पिता के वो आंसू आपको जरूर याद दिलाएंगे...कि जो हुआ...वो रुक सकता था....औऱ जो हो रहा है वो तो चले या रुके...क्या फर्क पड़ता है....
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