सूबे का मुखिया अगर कोई निर्णय ले तो जरूरी नहीं कि उससे लोग खुश ही हों। कई बार जनता विरोध भी करती है। लेकिन इन विरोध का सामना करने और इसे शांत करने के लिए मुखिया का चतुर होना बहुत जरूरी होता है। उदाहरण के लिए हिमाचल को ही ले लीजिए।
हाल ही में परिवहन व्यवस्था को ढाल बना कर यहां लोगों को सरकार ने ऐसा झटका दिया गया कि उस झटके को दूसरे दलों ने राजनीति करने के लिए जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन मुखिया जी भी कोई कच्चें खिलाड़ी नहीं थे। उन्हांने भी गुगली फेंकने में देर नहीं लगाई। पहले बसों के किरायों में बेशुमार बढ़ोतरी की और जब जनता विरोध में सड़क पर उतर आई तो उन्हीं किरायों को थोड़ा सा कम करके उसी जनता को खुश भी कर दिया। इसे कहते हैं राजनीति के पक्के खिलाड़ी।
खैर हम जैसे लोग तो राजनीति पर लैक्चर ही झाड़ते रह जाते हैं मगर नेता लोग, बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कह जाते है और बिना कुछ किए भी बहुत कुछ कर जाते हैं। इसका मुख्य कारण है राजनेताओं का ब्रम्हास्त्र। और वो ब्रम्हाव्त्र ये है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। जनता को ज्यादा देर कुछ भी याद नहीं रहता। पहले थप्पड़ मारो फिर मरहम भी लगा दो। आखिरकार अब भी हम इसी झूठ के साथ जी रहे है कि असली शासक तो जनता ही है।
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