न्यायाधीशों पर उठे सवाल न्यायपालिका को भी प्रभावित करते हैं, फिर चाहे वो एके गांगुली हो या फिर राघवेंद्र राठौर.....
किसी भी देष में न्यायपालिका को देष का सबसे पवित्र स्थ्ल माना जाता है। यह उम्मीद की जाती है कि न्याय पालिका किसी भी स्थिति में उचित एवं त्वरित न्याय करेगी, और ये हो भी रहा है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब न्याय के देवता माने जाने वाले न्यायाधीषों की मौजूदा स्थिति हमारे सामने आती है।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज और पष्चिम बंगाल के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एके गांगुली हाल ही मैं जिन आरोपों में घिरे है उससे न्यायपालिका के पहरेदारों पर से विष्वास कम होना जाहिर है।
इसके अलावा राजस्थान उच्च न्यायालय के जज राघवेंद्र राठौर, जिन्होंने अपनी ही बेटी को अंजरजातीय विवाह के कारण अपने ही घर में कैद कर रखे रखा। ये दोनों मामले हालांकि व्यक्ति विषेश हैं लेकिन इन व्यक्तियों का संबंध सीधे तौप पर हमारी उस व्यवस्था से है जिसके बूते पर ही न्याय प्रणाली आगे बढ रही है। न्यायाधीशों पर उठे सवाल न्यायपालिका को भी जाहिर तौर से प्रभावित करते हैं, फिर चाहे वो एके गांगुली हो या फिर राघवेंद्र राठौर।
न्यायालयों और न्यायाधीषों की पहचान समाज में ऐसे पवित्र स्थल के रूप मे है जहां अपराधियों को उनके आपराधिक चरित्र से परिचित कराया जाता है। जहां उनमें पष्चाताप की भावना पैदा करने की कोषिष की जाती है। जहां उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने के उद्येष्य से उनके व्यक्तित्व का आईना दिखाया जाता है। लेकिन आईना दिखाने वालों की अगर खुद की तस्वीर धुंधली हो तो फिर न्याय प्रक्रिया पर भरोसा करने में जरा तकलीफ तो होगी ही।
मौजूदा स्थिति भी कुछ ऐसी ही है।
इस न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। लेकिन विडंबना ये है कि सवाल उठाने वालों में वे राजनीतिज्ञ ही हैं जिनके पास अपने उपर उठे सवालों का ही जवाब नहीं है।
तो समस्या येे नहीं है कि न्याय पालिका पर भरोसा कैसे करें, बल्कि समस्या ये है कि जिस न्याय व्यवस्था में गांगुली और राघवेंद्र जैसे न्याय के पहरेदार हों, उस न्याय व्सस्था के प्रति आम लोगों के विष्वास को किस प्रकार से प्रगाड़ बनाया जाए। ये सवाल सिर्फ आम लोगों या फिर प्रषासनिक व्यवस्था के लिए ही नहीं है बल्कि खुद न्यायपालिका के लिए भी है जिस पर गौर किया जाना समय की सबसे जरूरी मांग बन चुकी है।
किसी भी देष में न्यायपालिका को देष का सबसे पवित्र स्थ्ल माना जाता है। यह उम्मीद की जाती है कि न्याय पालिका किसी भी स्थिति में उचित एवं त्वरित न्याय करेगी, और ये हो भी रहा है। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब न्याय के देवता माने जाने वाले न्यायाधीषों की मौजूदा स्थिति हमारे सामने आती है।
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज और पष्चिम बंगाल के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एके गांगुली हाल ही मैं जिन आरोपों में घिरे है उससे न्यायपालिका के पहरेदारों पर से विष्वास कम होना जाहिर है।
इसके अलावा राजस्थान उच्च न्यायालय के जज राघवेंद्र राठौर, जिन्होंने अपनी ही बेटी को अंजरजातीय विवाह के कारण अपने ही घर में कैद कर रखे रखा। ये दोनों मामले हालांकि व्यक्ति विषेश हैं लेकिन इन व्यक्तियों का संबंध सीधे तौप पर हमारी उस व्यवस्था से है जिसके बूते पर ही न्याय प्रणाली आगे बढ रही है। न्यायाधीशों पर उठे सवाल न्यायपालिका को भी जाहिर तौर से प्रभावित करते हैं, फिर चाहे वो एके गांगुली हो या फिर राघवेंद्र राठौर।
न्यायालयों और न्यायाधीषों की पहचान समाज में ऐसे पवित्र स्थल के रूप मे है जहां अपराधियों को उनके आपराधिक चरित्र से परिचित कराया जाता है। जहां उनमें पष्चाताप की भावना पैदा करने की कोषिष की जाती है। जहां उन्हें एक अच्छा नागरिक बनाने के उद्येष्य से उनके व्यक्तित्व का आईना दिखाया जाता है। लेकिन आईना दिखाने वालों की अगर खुद की तस्वीर धुंधली हो तो फिर न्याय प्रक्रिया पर भरोसा करने में जरा तकलीफ तो होगी ही।
मौजूदा स्थिति भी कुछ ऐसी ही है।
इस न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। लेकिन विडंबना ये है कि सवाल उठाने वालों में वे राजनीतिज्ञ ही हैं जिनके पास अपने उपर उठे सवालों का ही जवाब नहीं है।
तो समस्या येे नहीं है कि न्याय पालिका पर भरोसा कैसे करें, बल्कि समस्या ये है कि जिस न्याय व्यवस्था में गांगुली और राघवेंद्र जैसे न्याय के पहरेदार हों, उस न्याय व्सस्था के प्रति आम लोगों के विष्वास को किस प्रकार से प्रगाड़ बनाया जाए। ये सवाल सिर्फ आम लोगों या फिर प्रषासनिक व्यवस्था के लिए ही नहीं है बल्कि खुद न्यायपालिका के लिए भी है जिस पर गौर किया जाना समय की सबसे जरूरी मांग बन चुकी है।
ye jo tere blog h inme font dhng se use kr....urdu dikhegi ni to logon ko
ReplyDeleteteko hindi dikh ri he na...
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