वर्तमान भरतीय राजनीति की दशा को देखकर ये
मानना हमारी मजबूरी है कि भारतीय राजनीति गठबंधन की गुलाम बन चुकी है। सत्ता पर
आसीन चाहे जो भी हो लेकिन प्रजा पर राज हमेशा गठबंधन ही करता है। मौजूदा भारतीय
राजनीति का चेहरा भी कुछ यही बयान कर रहा है। गठबंधन की दया से सत्ता में आसीन
सरकार को गठबंधन का हर प्यादा झटका देने में जुटा है। पहले ममता दीदी ने झटका दिया
और फिर करुणानिधि ने। ऐसे में सरकार की चाबी सीधे सीधे सरकार में सबसे ज्यादा
भागीदारी वाले मुलायम सिंह के हाथ में आ गई । अब अप्रत्यक्ष रुप से सरकार ऐसी
कठपुतली बन गई है जिसकी डोर मुलायम के हाथ में है। इधर मुलायम ने डोर खींची, उधर
सरकार का नाटक खत्म।
ऐसे में अगर मध्यावधि चुनाव की बातें हवा
में उडने लगे तो सरकार को कोई न कोई नुमाइंदा सामने आकर कोई खतरा न होने का राग
अलापने लगता है। इसके तुरंत बाद मुलायम आडवाणी की तारीफों के पुल बांधकर सरकार के
नुमाइंदों को जता देते है कि तुम चाहे जितना शोर कर लो,
म्युट का बटन तो हमरे ही हाथ में है।
अब इस परिस्थिति में सरकार की डूबती नैया
को जबरदस्ती सतह पर बनाये रखने की कोशिश करने से अच्छा है कि सरकार खुद ही
मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दे। इससे फायदा ये होगा कि सरकार को गठबंधन के गठजोड
से तो मुक्ति मिलेगी ही साथ में विरोधि पार्टियों को भी अफरा तफरी में चुनावी
बिसात में उतरना ही होगा। सारी रणनीतियां धरी की धरी रहने से भारतीय राजनीति का
चेहरा ही बदल जायेगा।
इससे तीसरे मोर्चे को हवा दे रही एनसीपी, सरकार
को अपने इशारे पर नचा रही समाजवादी पार्टी, श्रीलंका
मुद्ये पर भडक रही द्रमुक पार्टी और पिछले एक दशक से सत्ता के लिये तरस रही जनता
पार्टी समेत सभी को नये सिरे से शुरुआत करनी होगी और सरकार का मध्यावधि चुनाव का
फैसला इन सब के लिये एक बडा झटका साबित हो सकता है।
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