पास की मस्जिद में नमाज़ होती थी रोज़ सुबह....उसी की आवाज से मेरी
नींद खुलती थी....और नींद खुलते ही...मैं भगवान को
याद करता था...कितना अजीब लगता है ना....रोज़
सुबह इस्लाम का ''अल्लाह'' मुझे जगाता था....और याद दिलाता था कि मुझे हिंदुत्व के ''भगवान'' को याद करना है....नमाज वाली उसी मस्जिद के पास एक मंदिर भी था...अल्लाह और भगवान...लगता था जैसे दोनों पड़ोसी हैं एक दूसरे के....और मैं....कोई मुसाफिर....जिसकी न कोई मंजिल है...और न ही कोई रास्ता....वो मुसाफिर...जो मस्जिद में नमाज पढ़ रहे एक नमाजी को....और मंदिर में माथा टेक रहे एक हिंदू को...एक ही नजर से देखता है....और फिर दोनों को देखने के बाद....खुद को एक घने अंधेरे में खड़ा पाता है....वो अंधेरा...जहां से वो मुसाफिर निकल ही नहीं पाता...न अल्लाह उसकी मदद कर पाता है...और न ही भगवान....कुछ कह ही नहीं पाया था मैं...जब मेरे सामने खड़े उस 14 या 15 साल लड़के ने एक गली की ओर इशारा करते हुए कहा था....''भाईजान, इस मस्जिद वाली गली में जाइए...सामने ही मंदिर आ जाएगा ''...
मैं बस खड़ा सोचता ही रह गया....उस लड़के के शब्दों कुछ अजीब नज़र आया मुझे....
मस्जिद वाली गली....मंदिर का पता बता रही थी....
धर्म के नाम पर लेक्चर देने का अब मन नहीं करता...बहुत लेक्चर सुने...और बहुत लेक्चर देने वालों को देखा भी...लेकिन कोई फर्क कभी नहीं देख पाया मैं...न ही धर्म की सोच में और न ही...लोगों के चेहरों पे....वो चेहरे...जो मुझसे बात करते करते अचानक उस वक्त मौन होकर मुझे देखने लगते हैं...जब मैं उन्हें बताता हूं कि मैं एक मुस्लिम लड़के के साथ रहता हूं....शायद भगवान और अल्लाह को एक साथ देखने की आदत नहीं बना पाए हम आजतक....या फिर शायद हमने इसकी कोशिश ही नहीं की....
किसी एक मज़हब का पक्षधर नहीं हूं मैं....और ही किसी एक मज़हब का विरोधी...दरअसल मैं खुद ही नहीं जान पाया अब तक....कि मज़हब के बारे में मेरी सोच क्या है...एक तरफ सबको एक बराबरी से देखने वाली नज़र है...तो दूसरी तरफ वो समाज...जिसने मुझे इंसान बनाया....नकार किसी को नहीं सकता...न नज़र को....और न ही उस समाज को....बस जूझ रहा हूं....कभी अपनी नज़र से....तो कभी समाज से....और कभी....समाज की सोच से....
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