सुना है परम ज्ञान की अनुभुति करने के लिए बड़े बड़े महारथी एक राउंड हिमालय का जरूर लगाते हैं। इस अनुभूति को धारण करने की ललक हमारे मन में भी जगी लेकिन फिर पता चला कि परम ज्ञान के परम ज्ञाता तो हमारे सामने ही बैठे थे। षिक्षा के समूचे तंत्र को वो इस कदर घोल के पी चुके थे कि इस तंत्र के खिलाफ किसी भी तरह के विरोध का उन पर अब कोई असर ही नहीं पड़ता था। एक पर एक फैसले वो ऐसे लिए जा रहे थे मानो सब्जी में तड़का लगाते हुए मसालों की मात्रा तय करने संबंधी फैसला ले रहे हों। लेकिन ऐसी नहीं है कि उनके फैसलों का विरोध नहीं हुआ। सभी फैसलों का विरोध भी खूब हो रहा था। खुद को छात्रों के हितों का ठेकेदार समझने वाले कुछ छात्र नेता बाहर मुर्दाबाद मुर्दाबाद के नारे लगाकर विरोध के दोहे पढ़े जा रहे थे। लेकिन अंदर उन पर तो मानो धड़ाधड़ा फैसले लेने का भूत सवार था। इस बीच हमने उनके फैसले लेने की काबिलियत पर गौर फरमाते हुए पूछा,
‘‘बाहर पुलिस और छात्र आपस में कबडडी खेल रहे हैं और आप यहां बैठे बैठे षिक्षा के मूल्य विस्तार पर चिंतन कर रहे हैं, आप पर इस विरोध का कोई असर हो रहा क्या।‘‘
इस पर अपनी घोर चिंतन अवस्था से बाहर निकलते हुए उन्होंने हमें गीता के अंतिम अध्याय का आभास कराते हुए कहा, ‘‘हम तो कर्म कर रहे हैं, फल की इच्छा नहीं करते। प्रषासनिक देवता ने कहा है, कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर।‘‘ उनके इस ज्ञान से हमें भी भगवत गीता पर थोड़ा तरस आ गया। आखिर प्रषासनिक देवता जैसा षब्द हमने भी तो पहली बार सुना था और हमें तो इसकी परिभाषा भी मालूम नहीं थी। इतने में बाहर से फिर आवाज आई, ‘‘मुर्दाबाद मुर्दाबाद।‘‘
इस पर हमने उनके अमूल्य जीवन गाथा की अहमियत को समझते हुए पूछा, ‘‘बाहर तो आपके षिक्षार्थी आपकी अंतिम यात्रा की कामना कर रहे है, आपको नहीं लगता उनसे उनकी इस परम इच्छा के विषय में वार्तालाप का आलाप प्रलाप करने का प्रयास करना चाहिए।‘‘ इस पर वो फिर षास्त्रों की परम गाथा में विलीन हो कर हमें भगवद गीता के ज्ञान की अनुभूति कराने लगे,
‘‘जीवन मरण तो सब प्रभु की माया है, इस मोह माया से किसने क्या पाया है। मेरी अंतिम यात्रा का फैसला तो वही प्रभु करेगा।‘‘
ऐसा लग रहा था जैसे फैसले लेने का ये गुर उन्होंने अपने परसनल प्रभु से ही सीखा हो। लेकिन उनके गीता ज्ञान के आगे बाहर का सारा विरोध निषेध प्रतीत हो रहा था। अंदर वो गीता ज्ञान दे रहे थे और बाहर महाभारत का युद्व हो रहा था। विष्वविद्यालय की ‘‘षिक्षित भूमि‘‘, कुरूक्षेत्र की ‘‘कर्मभूमि‘‘ बन रही थी। एक ओर पुलिस बल, अपने बल की बोली लगा रहा था और दूसरी ओर छात्रों पर उनकी अंतिम यात्रा का वेग हावी हो रहा था। बल की बोली और वेग के हावी होने के बीच मेरा मस्तिष्क आउट आफ कंट्ोल हुआ जा रहा था। इस पूरे परिदृष्य को समझने में मेरेे जहन को कड़ी मषक्कत करनी पड़ रही थी। इतनी मषक्कत तो गीता का ज्ञान समझने में अर्जुन को भी नहीं करनी पड़ी होगी।
अपने आप को अर्जुन से कम अंाकना मुझे भी हजम नहीं हुआ, सो हम एक बार फिर अंदर उन्हीं के पास उनके परम ज्ञान की अनुभूति करने के लिए पहुंच गए।
मैंने पूछा, ‘‘आखिर आप बाहर धरना दे रहे अपने भक्तों को दर्षन देकर उनकी पीड़ा का निदान करने में संकोच क्यों कर रहे है।‘‘ इस पर उन्होने कहा, ‘‘मेरे पास ऐसा कुछ नहीं जो मैं उन्हें दे पाउं, क्या मेरा क्या तेरा, खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही चला जाउंगा।‘‘
षिक्षा के तंत्र पर उनका ज्ञान इतना बढ़ चुका था कि उन्होंने विष्वविद्यालय के कुल को अपना कुल समझ कर एक लंबा चैड़ा कुल गीत ही लिख डाला था। और सिर्फ लिखा ही नहीं, बल्कि विष्वविद्यालय के संगीत संबंधी छात्रों से इसे गवा भी डाला था।
लेकिन संगीत के सुर भी उनके और बाहर नारे लगा रहे उनके भक्तों के बीच तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे। ऐसे में विष्वविद्यालय के कुल को गीता भरोसे ही छोड़ देना हमें बेहतर लगा, अब आखिर भगवान भरोसे ही हम क्या क्या छोड़ते रहेंगे, थोड़ा मौका तो गीता को भी दिया जाना चहिए न....
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