इस व्यस्त जिंदगी मे, थोड़ी मानसिक शांति पाने के लिए पिछले दिनो मै सुबह सुबह सैर पर निकला और
प्रकृति की खूबसूरती को अनुभव करने की कोशिश करने लगा।
लेकिन उस अनुभव को बयान करना जरा मुश्किल है
क्योंकि थोड़ी दूर जाते ही मेरी नज़र सब्जी की दुकान पर बैठे एक 8-9 साल के लड़के पर
गयी। बाल मजदूरी को मिटाने का जो नारा मै अक्सर सुनता हूं उसकी असलियत एकदम मेरे
सामने आ गयी। शर्मिंदगी इसलिए भी हुई क्योंकि उस दुकान के ठीक बगल मे था एक स्कूल।
एक ऐसा स्कूल जिसका नाम भी माँ सरस्वती के नाम पर रखा गया था और माँ सरस्वती की
नज़रों के सामने बचपन का ऐसा मज़ाक मुझे झकझोरने के लिए काफी था। बुरा तो काफी लगा
ये देखकर कि जिस देश मे शिक्षा के नाम पर बच्चों मे लैपटाप और टैब्लेट बांटे जा
रहे हो उस देश मे ऐसे भी बच्चे है जिनकी सुबह भी काम करते हुये होती है और शाम भी।
खैर मानसिक शांति को पाने की मै जो कोशिश कर
रहा था वो कोशिश तो नाकाम हो गयी, पर देश की
प्रगति मे बाधक एक और पहलू इससे मेरे सामने आ गया जिसे दूर करने के लिए एक सामूहिक
प्रयास की जरूरत है और इस प्रयास के बिना इस बाधा को पार करना जरा मुश्किल है।
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