Tuesday 4 November 2014



http://www.himachallive.com/wp-content/uploads/2014/09/hpu2.jpg भारत में ऐसे कई राजनीतिक चेहरे हैं जिनके शिखर तो राश्ट्ीय राजनीति में है मगर उनकी जड़ें छात्र राजनीति से ही मजबूत होने लगी थी। लेकिन यही छात्र राजनीति राजनीतिक हिंसा को बढ़ावा देने में भी कोई कम कसर नहीं छोड़ती। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी को पहली नजर में देखकर कोई भी कह सकता है कि छात्र राजनीति से ज्यादा यहां हिंसात्मक राजनीति होती है।

15 अप्रैल 2013, इस ​िदन हिमाचल के सर्वोच्च शिक्षण संस्थान हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में नजारा कुछ  अलग ही था। इस यूनिवर्सिटी में देश की दो बड़ी राश्ट्ीय राजनैतिक पार्टियों की लघु इकाईयां अपने अपने बल का प्रदर्शन कर रही थी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद और भारतीय राश्ट्ीय छात्र संघ के छात्र आपस में इस कदर भिड़ गए कि यूनिवर्सिटी में शिक्षा के अस्तित्व पर ही सवाल उठ गए। यहां तक कि स्थानीय राजनीति  के कई सूरमा भी राजनेताओं की आड़ में अपनी पैठ को उंचा ​िदखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। लेकिन ये कोई पहली बार नहीं हो रहा था, और न ही आखिरी बार।                                                                                                

13 मई 2013, मई जून का महीना हर साल ऐसा समय होता है जब नए छात्र यूनिवर्सिटी में पहुंचते हैं और प्रवेश प्रक्रिया का हिस्सा बनकर यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते है। 13 मई का वो ​िदन भी कुछ ऐसा ही था। अंदर प्रवेश परीक्षा चल रही थी और बाहर छात्र हित के नाम पर दराट दराट का खेल खेला जा रहा था। दो विरोधी छात्र दल एक दूसरे पर दराट, हथौड़े और सरिये का ऐसा इस्तेमाल कर रहे थे जैसा श्शायद किसी निर्माण कार्य में भी नहीं होता। एक दूसरे के सिर फाड़ने की ये प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। इसके बाद हमारी सुरक्षा व्यवस्था को अपने अस्तित्व में होने का आभास हुआ और पूरी यूनिवर्सिटी एकाएक खाकी से ढक गयी। उस दौरान हुआ ये कि प्रदेश भर के सैंकड़ों छात्र तो यूनिवर्सिटी के कमरों के अंदर प्रवेश परीक्षा दे रहे थे और बाहर पूरे यूनिवर्सिटी परिसर में पुलिस ने धारा 144 लगा दी। इसका परिणाम ये हुआ कि  परीक्षा देकर जैसे ही  बड़ी संख्या में छात्र कमरों से बाहर निकले, एकाएक उन पर लाठियां बरसा दी गई। हालांकि इससे पहले जो दराट वाला खेल परिसर में चल रहा था उसके खिलाड़ी अब तक गायब हो चुके थे। लेकिन इस सबका खमियाजा भुगतना पड़ा उन युवाओं को जो यूनिवर्सिटी के छात्र भी नहीं थे। ऐसे मामले हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में  पहले भी बहुत हुए है। जानकारों के मुता​िबक हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में छात्र राजनीति से प्रेरित हिंसा में अब तक तीन छात्र नेताओं की हत्याएं हो चुकी है। लेकिन राजनीति और छात्र हित के नाम पर खेला जाने वाला ये लाल खेल यहां अब भी नहीं रूक पा रहा। ​िदल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, ओस्मानिया यूनिवर्सिटी और राजस्थान यूनिवर्सिटी की ही तरह हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में भी केंद्रीय छात्र संघ पर ज्यादातर वामपंथी दलों से प्रेरित छात्र दलों का ही कब्जा रहा है। ऐसे में पश्चिम बंगाल, झारखंड और केरल की ही तरह यहां भी लाल सलाम आम तौर पर सुनाई ही दे जाता है। और कई बार तो इस लाल सलाम की लाली  में ऐसे छात्र भी रंगे होते हैं जो न तो माक्‍​र्सवादी विचारधारा को समझते हैं और न ही लेनिन को जानते है। हिमाचल यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति से ही निकले एक नेता है राकेश सिंघा जो हिमाचल में वामपंथ का एकमात्र चेहरा है। हालांकि इस यूनिवर्सिटी के कालचक्र में इतना कुछ समा जाने के बाद भी यहां के हालात  कुछ खास नहीं बदले है।                                          
http://www.aisa.in/wp-content/uploads/2014/09/23/aisa-strongly-condemns-police-atrocities-lathi-charge-students-protesting-fee-hike-hpu/hpu4.jpg
हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में हिमाचल के लगभग सभी जिलों से छात्र उच्च शिक्षा की परिभाशा जानने के लिए हर साल पहुंचते हैं। लेकिन आम  तौर पर उनका स्वागत इसी तरह की हिंसात्मक गतिविधियों से होता है। और मुश्किल ये है कि यूनिवर्सिटी के इस माहौल के लिए जिम्मेदारी किसी की भी तय नहीं हो पाती है। छात्र इसके लिए यूनिवर्सिटी प्रशासन को जिम्मेदार मानते हैं और यूनिवर्सिटी प्रशासन इसके लिए छात्र राजनीति को जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन परेशानी होती है उन आम छात्रों को जो ये ही नहीं समझ पाते कि इस हिंसा का आखिर कारण क्या है। जब सभी छात्र दल आम छात्रों के अधिकारों के लिए ही प्रयासरत है तो वो आपस में ही लड़कर क्या जाहिर करना चाहते है। ये सवाल उन युवाओं के मन में तो होता ही है जो हर साल यूनिवर्सिटी में पहुंचते हैं लेकिन उनके मन में  भी होता है जो पहले से ही यूनिवर्सिटी के छात्र है।

3 अक्तूबर 2013 के ​िदन ने एक बार फिर याद ​िदला ​िदया कि यूनिवर्सिटी में छात्र हित से ज्यादा अहम होता है विरोधी छात्र दल का अहित। और इस ​िदन भी कुछ ऐसा ही हुआ। सुबह सुबह जब आम छात्र यूनिवर्सिटी परिसर में पहुंचे तो खून से रंगी सड़कें देखकर किसी को समझ ही नहीं आया कि आखिर ये हो क्या रहा है। पूरा परिसर पुलिस बल से भरा था, छात्रों के पहचान पत्र जांचे जा रहे थे लेकिन ये सारी प्रक्रिया बाद की थी, इससे पहले जो यहां हुआ उसने एक बार शिक्षा प्रणाली पर सवाल खड़े कर ​िदए थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं में सुबह सुबह ही खूनी  भिडंत हो चुकी थी। सुबह के नौ बजे तक दोनों दलों के करीब 25 छात्र घायल हो चुके थे और अलग अलग अस्पतालों में भर्ती किए जा रहे थे। विरोधी दलों के छात्रों को ढूंढ ढूंढ कर मारा पीटा जा रहा था। हालांकि ये हिंसा भी एक मामूली से पोस्टर विवाद का नतीजा थी। जिसकी शुरूआत पिछली रात को ही चुकी  थी। इस हिंसा में यूनिवर्सिटी के दर्जनों छात्रों के निश्कासन का भी फैसला लिया गया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद के करीब 13 छात्र लगभग आठ महीनों तक जेलों में बंद रहे और उन पर मुकदमें चलते रहे। हालांकि पुलिस और यूनिवर्सिटी प्रशासन के इन कदमों से कोई खास परिवर्तन नहीं आया।

                                                                                          23 जून 2014 को को ये बात साफ भी हो गई जब एक बार फिर यूनिवर्सिटी में पुलिस को लाठियां बरसाने पर मजबूर होना पड़ा। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी की कार्यकारी परिशद की बैठक थी। स्टूडेंट फैडरेशन ऑफ इंडिया के छात्रों को ये अंदेशा हुआ ​ि क इस बैठक में कार्यकारी परिशद द्वारा फीस बढ़ाए जाने के प्रस्ताव को पारित किया जा सकता है। लिहाजा एक बार फिर विरोध के स्वर तेज हुए। एसएफआई के छात्रों ने काले ​िबल्ले लगाकर और काले झंडे फहरा कर कुलपति कार्यालय की तरह जाने वाले रास्ते को जाम कर ​िदया और सड़कों पर लेटकर कुलपति को रोकने की कोशिश की। ऐसे में पुलिस बल एक बार फिर आवेश में आ गया और छात्रों को खदेड़ने के  लिए लाठियां भांजनी शूरू कर दी। हालांकि जैसे तैसे कार्यकारी परिशद की ये बैठक पूरी हुई और इसमें फीस बढ़ोत्तरी का कोई फैसला नहीं लिया गया। लेकिन यूनिवर्सिटी प्रशासन और छात्र दलों का टकराव एक बार फिर सामने आ गया। इन सभी मौकों का विश्लेशण करने पर ये कतई नहीं लगता कि हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी और छात्र राजनैतिक दल आपस में बातचीत के माध्यम से मामलों को सुलझाने की इच्छाशक्ति रखते है। दोनों में टकराव का कोई भी मौका नहीं छोड़ा जाता। फिर बात चाहे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद की हो या फिर स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया की। पर मुश्किल ये है कि इतनी उठापटक के बावजूद भी आम छात्रों का हित दूर दूर तक नजर नहीं आता। यूनिवर्सिटी में फीस लगभग दोगुनी से भी ज्यदा बढ़ चुकी है, रूसा प्रणाली को लागू कर ​िदया गया है, जर्मन माक्‍​र्सशीट के नाम पर छात्रों से पैसे ऐंठे जा रहे है, कक्षाओं में छात्रों को खडे रहना पड़ रहा है, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी कई विभागों में नहीं है, कुछ विभागों में तो उपयुक्त कमरे और फर्नीचर भी मौजूद नहीं है, स​िब्सडाइज्ड सीटों की तुलना में नॉन स​िब्सडाइज्ड सीटों की संख्या को लगातार बढ़ाया जा रहा है और यूनिवर्सिटी का प्रशासनिक विभाग ऐसा है जहां एक बार आम छात्र का कोई काम हो ही नहीं सकता। अब छात्र राजनीति की गैर जरूरी परंपरा कब खत्म होगी, या कभी खत्म होगी भी या नहीं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है, या शायद कोई इसका जवाब देना ही नहीं चाहता।



                                                                      
                                                                                                              

                                                                                                                            
                                                                                                

0 comments:

Post a Comment

Follow Updates

Total Pageviews

Powered by Blogger.

Confused

Confused
searching for a direction