Friday 31 August 2012


हजार जवाबों से बेहतर है एक खामोशी मेरी, वरना ना जाने अब तलक कितने सवाल बेआबरु हो जाते .
                   पिछले दिनों कोयला घोटाले की कालिख से परेशान प्रधानमंत्री महोदय ने विपक्ष के बेरहम सवालों का जवाब कुछ इसी शायराना अंदाज मे दिया जिसे देखकर शायद गालिब भी शरमा जाए. मैने तो लोकसभा और विधानसभा जैसे शब्द टीवी पर ही सुने और देखे थे लेकिन मंत्री जी के इस शायराना अंदाज के बाद मेरा भी मन हुआ कि मैं भी लोकतंत्र के इन मंदिरों मे जाऊँ और बेआबरु सवालों के खामोश जवाबों को सुनने की कोशिश करुं. इस तरह के सवाल जवाब बस लोकतंत्र के मंदिरों मे ही देखे जा सकते है, ऐसे मंदिर जिनमें भगवान कौन है ये मैं आज तक नहीं समझ पाया.
                       खैर, युनिवर्सिटी के कर्मठ स्टाफ की मदद से आखिर मुझे लोकतंत्र के इस मंदिर मे जाने का मौका मिल ही गया. शिमला स्थित हिमाचल प्रदेश विधानसभा में जाने का मेरा ये पहला मौका था जिसे लेकर मैं काफी उत्साहित भी था. सुबह सुबह साथियों के साथ मौके पर पहुंचा तो कड़े सुरक्षा इंतजाम देखकर हैरान रह गया. करीब 100 से ऊपर पहरेदार, वो भी खाकी वर्दी में, जो गेट से 50 मीटर की दुरी से भी आपको ऐसे भगाएँगे जैसे उधार सामान मांगने पर कोई दुकानदार भगाता है. चेहरे पर ऐसा रौब, जैसे टिकट ना लेने पर बस कंडक्टर के चेहरे पर होता है. पर इस सब के बावजूद मैं बिल्कुल शांत था क्योंकि मुझे खुशी हो रही थी ये देखकर कि प्रशासन का कोई तो ऐसा तबका है जो अपना काम इतनी ईमानदारी और कर्मठता से कर रहा था.
         खैर, जैसे तैसे अपना सारा सामान बाहर जमा कर मैं अपने साथियों के साथ विधानसभा सदन मे पहुंचा. अंदर पहुंचते ही चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई. इतना शांत माहौल, मानों सुबह सुबह सैर पर जा रहे हो और चिड़िया जैसी मीठी आवाज में भाषण पढ़ती एक महिला पार्षद, सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था. थोड़ी देर के लिए तो मैं सदन की उस शांति में खो सा गया था, पर तभी एक जोरदार झटका लगा और यमराज जैसी आवाज और मूंछो वाले एक महाशय ने मुझे फटकारते हुए अपने सीट पर बैठने के लिए कहा. मेरी लंबाई से भी ज्यादा लंबी उनकी मूँछे देखकर, मेरे मुंह से तो आवाज ही नहीं निकल पाई और मैने अपनी सीट पर जाकर चुपचाप बैठ जाना ही बेहतर समझा.
           अब तक महिला पार्षद की वो कोयल जैसी आवाज, कानों के परदे फाड़ देने वाले शोर में बदल चुकी थी. ऐसा लग रहा था जैसे सड़क पर कोई नुक्कड़ नाटक चल रहा हो. पक्ष विपक्ष के आरोप प्रत्यारोप चलते गए और मैं लोकतंत्र की परिभाषा को लेकर जरा असमंजस मे पड़ गया. इसी बीच उस दानवाकार शख्स की मूंछें फिर से मुझे चिढ़ाने लगी जैसे कह रही हो, तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की. खैर, उस शख्स से ध्यान हटा कर जैसे ही सदन की बहस पर ध्यान लगाने की कोशिश की तो पता चला कि विपक्षी दल तो दो चार नारों के साथ Walk-out कर गया है.
                                 अब मेरा सब्र जवाब देने लगा. इतने खाकी वर्दी वालों के ताने सुनकर, उस भीमकाय शख्स की मूँछों को झेलकर, मुश्किल से सदन में ध्यान लगाया भी तो नतीजा क्या हुआ, walk-out.... 
      इससे तो गाँव का प्राइमरी स्कूल बेहतर है. कम से कम घंटी बजने से पहले कोई  walk-out  तो नहीं करता और अब तो वहाँ भी खिचड़ी का प्रावधान है जिसे खाए बगैर walk-out  करने का वैसे ही मन नहीं करता. खैर, इस अनुभव से लोकतंत्र का एक और चेहरा मेरे सामने आ गया. पर हमारा देश जैसा भी है इसी मंदिर की वजह से है. देश का वर्तमान और भविष्य यही मंदिर तय करता है. इसलिए मैं इसका सम्मान करता हूँ पर साथ ही मैं ये भी समझता हूँ कि देश-प्रदेश का भविष्य इन मंदिरों में बैठने वाले पुजारी के हाथ में होता है जिसे हम MLA  कहते है जो अगर सही हो तो देश को प्रगति करने से कोई नहीं रोक सकता, पर अगर गलत हो तो देश की नैय्या डूबना भी तय ही समझ लेना चाहिये.........

3 comments:

  1. You write very well Dharam. Count me as fan :-)

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  2. ni yr...itna b accha ni h varsha g/....bt thnx...aapne pdha to.....thnk u//.:)

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